अमित, 52 वर्ष, भोपाल की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करता है।
वह अक्सर खुद को आश्वस्त करता है – “मैं 65 तक काम करता रहूंगा। अगर करियर बढ़ा लिया तो रिटायरमेंट के लिए बचत करना कठिन नहीं होगा।”
ऊपरी तौर पर यह योजना पूरी तरह सही लगती है। आज अमित स्वस्थ है, अपने क्षेत्र में अनुभवी है और कार्यस्थल पर सम्मानित भी। उसकी संस्था उसके योगदान की कद्र करती है। तो फिर चिंता क्यों? जब वह आसानी से लंबे समय तक काम कर सकता है और बाद में बचत कर सकता है।
लेकिन हकीकत यह है कि ज़िंदगी हमेशा हमारी बनाई योजनाओं के मुताबिक नहीं चलती।
क्या होगा अगर अमित को 50 के दशक के अंत में स्वास्थ्य समस्या हो जाए?
क्या होगा अगर मंदी में कंपनी कर्मचारियों की छंटनी करे?
क्या होगा अगर उसे कम उम्र और सस्ते कर्मचारियों से बदल दिया जाए?
अचानक, उसका “लंबा काम करने” का भरोसा खतरनाक दांव बन जाता है।
यह केवल कल्पना नहीं है। हाल ही में एक प्रमुख वित्तीय कंपनी के 42 वर्षीय CFO की दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई — करियर के चरम पर। ऐसे हादसे हमें याद दिलाते हैं कि अप्रत्याशित घटनाएं सबसे मजबूत वित्तीय रणनीतियों को भी हिला सकती हैं।
और फिर भी, अमित की सोच असामान्य नहीं है। पूरे भारत में लाखों प्रोफेशनल इसी विश्वास पर भरोसा कर रहे हैं – “मैं लंबे समय तक काम करूंगा और खोया हुआ समय बचत से पूरा कर लूंगा।”
खर्चे कम करना, नियमित निवेश करना या अनुशासित योजना बनाना कठिन लगता है। लेकिन यह झूठी सुरक्षा बहुत भारी कीमत पर आती है। भारत में बढ़ती स्वास्थ्य समस्याओं, वरिष्ठ कर्मचारियों के लिए घटते अवसरों और सामाजिक सुरक्षा जाल की कमी के बीच, “लंबा काम करना” कोई योजना नहीं है। यह बस एक दांव है — और बेहद जोखिम भरा दांव।
लंबा काम करने पर भरोसा कर रहे हैं? ये 7 कारण बताते हैं क्यों यह खतरनाक है
1. स्वास्थ्य समस्याएं करियर छोटा कर देती हैं
भारत में लाइफस्टाइल बीमारियां तेज़ी से बढ़ रही हैं — डायबिटीज़, हाई ब्लड प्रेशर और हार्ट डिज़ीज़ यहां विकसित देशों से पहले और ज्यादा गंभीर रूप में सामने आ रही हैं।
50 की उम्र में स्वस्थ दिखने वाला प्रोफेशनल कल अचानक ऐसी बीमारी का शिकार हो सकता है जो उसे जल्दी रिटायरमेंट के लिए मजबूर कर दे।
एक अध्ययन बताता है कि भारतीयों को पश्चिमी देशों के लोगों की तुलना में औसतन 10 साल पहले हार्ट अटैक आता है। यहां दो-तिहाई कार्डियोवैस्कुलर मौतें “असमय” मानी जाती हैं।
“हमेशा स्वस्थ रहने” पर करियर टिकाना रिटायरमेंट रणनीति नहीं है।
2. नौकरी का बाज़ार वरिष्ठ कर्मचारियों के पक्ष में नहीं
भारत का नौकरी बाज़ार 50 से ऊपर के कर्मचारियों के लिए बहुत कठिन है। नियोक्ता ताज़ा ग्रेजुएट को पसंद करते हैं जो तकनीक जल्दी सीख लेते हैं और कम वेतन पर काम करते हैं।
58 वर्षीय अनुभवी मैनेजर भले ही ज्ञान लाता हो, लेकिन IT, फाइनेंस या मीडिया जैसे क्षेत्रों में युवा उम्मीदवारों को ही प्राथमिकता दी जाती है।
भले ही नौकरी बनी रहे, उम्र बढ़ने के साथ काम का दबाव और राजनीति थका देने वाली हो सकती है।
3. स्वास्थ्य खर्च वेतन से तेज़ी से बढ़ रहे हैं
भारत में हेल्थकेयर खर्च हर साल 10–15% की दर से बढ़ रहा है, जबकि वेतन वृद्धि इससे बहुत कम है।
आज जो सर्जरी ₹2 लाख की है, वह 10 साल बाद ₹5–6 लाख की हो सकती है।
एक सर्वे बताता है कि 71% भारतीय मानते हैं कि स्वास्थ्य खर्च पहले से ही बहुत बढ़ चुके हैं, और हर 5 में से 1 ने महंगाई के कारण इलाज टालने की बात मानी।
4. वित्तीय आश्रित (Dependents) दबाव बढ़ाते हैं
पश्चिमी देशों में बच्चे कॉलेज खत्म करते ही आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाते हैं। लेकिन भारत में माता-पिता अक्सर बच्चों की पोस्ट-ग्रेजुएशन, शादी या घर खरीदने तक खर्च उठाते रहते हैं।
साथ ही बुज़ुर्ग माता-पिता की देखभाल की जिम्मेदारी भी जुड़ जाती है।
इसलिए लंबा काम करने का मतलब ज़्यादा बचत नहीं है, बल्कि अक्सर वही कमाई आश्रितों पर खर्च हो जाती है।
5. बर्नआउट और घटती उत्पादकता
60 के दशक तक काम करना व्यावहारिक लग सकता है, लेकिन शरीर और दिमाग़ धीरे-धीरे थकते हैं।
तेज़-तर्रार युवा सहयोगियों के साथ तालमेल बिठाना मुश्किल हो जाता है। नतीजतन, बर्नआउट, थकान और प्रेरणा की कमी काम को बोझ बना देती है।
6. भारत में सामाजिक सुरक्षा का अभाव
अमेरिका या ब्रिटेन जैसे देशों में पेंशन, सब्सिडी वाला हेल्थकेयर और सोशल सिक्योरिटी होती है।
भारत में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। EPF और NPS जैसी योजनाएं केवल कुछ ही कर्मचारियों को कवर करती हैं। प्राइवेट सेक्टर वालों के लिए सैलरी रुकते ही आय रुक जाती है।
7. बचत में देरी से कंपाउंडिंग खत्म
रिटायरमेंट योजना टालने की सबसे बड़ी कीमत है कंपाउंडिंग का नुकसान।
अगर 30 साल की उम्र में ₹10,000 प्रति माह निवेश करें और 10% रिटर्न मानें, तो 60 की उम्र तक ₹2 करोड़ से ज्यादा का फंड बन सकता है।
लेकिन अगर 50 की उम्र में शुरुआत की तो यही रकम मुश्किल से ₹20 लाख बनेगी।
समय ही संपत्ति निर्माण का सबसे बड़ा कारक है। हर साल की देरी कंपाउंडिंग की ताकत छीन लेती है।
असली रास्ता: पक्की रिटायरमेंट योजना बनाना
1. जल्दी शुरुआत करें, चाहे छोटा ही क्यों न हो
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30 साल की उम्र में ₹5,000/माह → 60 तक ~₹1.15 करोड़
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40 साल की उम्र में वही रकम पाने के लिए ₹15,000/माह
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50 साल की उम्र में वही रकम पाने के लिए ₹50,000/माह (अवास्तविक)
2. रिटायरमेंट कॉर्पस लक्ष्य तय करें
सामान्य नियम: वार्षिक खर्च का 20–25 गुना फंड होना चाहिए।
अगर खर्च ₹1 लाख/माह (₹12 लाख/वर्ष) है, तो कम से कम ₹3 करोड़ चाहिए।
3. बीमा से सुरक्षा
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हेल्थ इंश्योरेंस = अस्पताल खर्च से बचाव
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टर्म इंश्योरेंस = परिवार की सुरक्षा
4. नियमित समीक्षा और बदलाव
हर 2–3 साल में योजना की समीक्षा करें।
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वेतन बढ़ने पर निवेश बढ़ाएं
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रिटायरमेंट के करीब आते-आते सुरक्षित साधनों में शिफ्ट हों
5. पैसिव आय के स्रोत बनाएं
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किराये की आय
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डिविडेंड
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बॉन्ड या FD का ब्याज
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पार्ट-टाइम कंसल्टिंग
6. पोर्टफोलियो का विविधीकरण
केवल FD या सोना पर्याप्त नहीं। एक संतुलित पोर्टफोलियो में शामिल हो सकता है:
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इक्विटी म्यूचुअल फंड / ETF
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PPF, EPF, बॉन्ड
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गोल्ड, REITs
अंतिम संदेश: अपने भविष्य से जुआ मत खेलें
आज “लंबा काम करना” आसान समाधान लगता है। लेकिन भारत में बढ़ती स्वास्थ्य समस्याओं, घटते अवसरों, महंगाई और सामाजिक सुरक्षा की कमी के कारण यह कोई योजना नहीं है — यह बस एक जोखिम भरा दांव है।
सच्ची वित्तीय सुरक्षा का रास्ता है:
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जल्दी शुरुआत करना
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नियमित बचत
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बीमा से सुरक्षा
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पैसिव आय बनाना
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समझदारी से विविधीकरण
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नियमित समीक्षा
रिटायरमेंट जीवन का वह समय होना चाहिए जब स्वतंत्रता और शांति हो, न कि डर और समझौता।
जितनी जल्दी शुरुआत करेंगे, बोझ उतना हल्का होगा। देर करने पर मंज़िल और कठिन होती जाती है।
👉 डिस्क्लेमर: यह लेख केवल शैक्षिक उद्देश्य के लिए है। यह निवेश संबंधी प्रोफेशनल सलाह नहीं है। किसी भी वित्तीय निर्णय से पहले योग्य सलाहकार से परामर्श अवश्य लें।
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